10.9.20

महादेवी वर्मा के प्रति

अपने जीवन के पल प्रति पल को
दीप-वर्तिका बना-बना
जल कर भी जिसने आह न की
कर दूर अवनि का तिमिर घना
क्या सुनते हैं ये कान !
वही देवी छलना से छली गई
दीवाली से पहले अपना 
दीप बुझा कर चली गई


पहले प्रसाद ने मुँह मोड़ा
अलविदा निराला बोल गये
चिर पथिक पंत जब हुये
धरा रोई थी सागर डोल गये
अब कौन हरेगा तपन, 
नीर वाली बदली तो चली गई
दीवाली से पहले अपना ...

नीहार प्रथम परिचय जिसका
फिर रश्मि युवा की संगिनि थी
मन प्रौढ़ हुआ, नीरजा बनी
फिर सांध्यगीत में संध्या थी
सिद्धावस्था की चौखट पर
जब दीपशिखा की ज्योति जली
वह ज्योति ! आज 
उस महाज्योति का साथ निभाने चली गई।
दीवाली से पहले अपना... 


निज जीवन की आहुति देकर
जो बनी सहेली हिन्दी की
हिन्दी साक्षात भारती है
वह देवि भाल की बिन्दी थी
हिन्दी को मान न दे पाये
पर उसे दिया जब अलंकरण
वह नहीं आम लोगों-सी थी
कर लेती पद्मभूषण का वरण
ले जाओ पद्मभूषण अपना
रखने से पीड़ा होती है
धिक्कार मुझे, धिक्कार तुम्हें
अपने घर हिन्दी रोती है
वह कहाँ गई ? क्यों गई? 
न जाने कौन लोक, किस गली गई।
दीवाली से पहले अपना...

बुझ गई दीप की शिखा मगर
लालिमा रहेगी सदियों तक
पंकिल भूतल को त्याग
व्योम में वास करेगी सदियों तक
लेखनी थाम कर लिखवाना
जब पथ भूलूँ तब आ जाना
धरती पर जब हो महा अन्ध
तब प्रथम रश्मि बन आ जाना
तुमको प्रणाम, शत शत प्रणाम
कर रहा व्योम का रोम रोम
स्वप्नों के खोले दरवाजे, 
स्पन्दन बन कर चली गई
दीवाली से पहले अपना... 

-डा० जगदीश व्योम


24.6.05

राष्ट्रीय एकता का सेतु

सूरज के सातों रंग
मिलते हैं जब एक साथ
तभी तो होता है प्रकाश
छूमंतर हो जाती है
अनन्त तमराशि
मुदित होती है
इकाइयों में बिखरी
समूची मानवता
इकाइयों से खिसक कर
दहाइयों, सैकड़ों,
हजारों, लाखों
और करोड़ों में
जब
होती है एकाकार
तभी तो होता है
राष्ट्रीय एकता का
जीवंत प्रतिमान साकार
कन्याकुमारी में
होने वाली
लहरों की पदचाप
सुन लेता है
संवेदनशील हिमालय
उस के अन्तस की पीड़ा
पिघलती है
और
बह उठती है
पतित पावनी गंगा बनकर
करोड़ो की पीड़ा से
द्रवित होते हैं करोड़ों
करोड़ों के आनन्द से
प्रफुल्लित भी
होते हैं करोड़ों
राष्ट्रीय एकता का
इतना विशाल सेतु
है भी तो नहीं
विश्व में
और कहीं
तभी तो बनाया है
प्रकृति ने
अपना
पालना यहीं॥
***

-डॉ॰जगदीश व्योम
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बाजीगर बन गई व्यवस्था

बाजीगर बन गई व्यवस्था
हम सब हुए जमूरे
सपने कैसे होंगे पूरे

चार कदम भर चल पाये थे
पैर लगे थर्राने
क्लांत प्रगति की निरख विवशता
छाया लगी चिढ़ाने
मन के आहत मृगछौने ने
बीते दिवस बिसूरे
सपने कैसे होंगे पूरे

हमने निज हाथों से युग–
पतवार जिन्हें पकड़ाई
वे शोषक हो गए
हुए हम चिर शोषित तरुणाई
'शोषण' दुर्ग हुआ अलबत्ता–
तोड़ो जीर्ण कंगूरे
सपने कैसे होंगे पूरे

वे तो हैं स्वच्छंद, करेंगे
जो मन में आएगा
सूरज को गाली देंगे
कोई क्या कर पाएगा
दोष व्यक्ति का नहीं
व्यवस्था में छल-छिद्र घनेरे
सपने कैसे होंगे पूरे

मिला भेड़ियों को भेड़ों की
अधिरक्षा का ठेका
जिन सफ़ेदपोशों को मैंने
देश निगलते देखा
स्वाभिमान को बेच, उन्हें
मैं कब तक नमन करूँ रे
सपने कैसे होंगे पूरे

बदल गए आदर्श
आचरण की बदली परिभाषा
चोर लुटेरे हुए घनेरे
यह अभिशप्त निराशा
बदले युग के वर्तमान को
किस विधि से बदलूँ रे

-डा० जगदीश व्योम

अहिंसा के बिरवे

चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
बहुत लहलही आज हिंसा की फसलें
प्रदूषित हुई हैं धरा ही हवाएँ।
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ॥
बहुत वक्त़ बीता कि जब इस चमन में
अहिंसा के बिरवे उगाए गए थे
थे सोये हुए भाव जन–मन में गहरे
पवन सत्य द्वारा जगाये गये थे।
बने वृक्ष वट–वृक्ष, छाया घनेरी
धरा जिसको महसूसती आज तक है
उठीं वक्त़ की आँधियाँ कुछ विषैली
नियति जिसको महसूसती आज तक है।
नहीं रख सके हम सुरक्षित धरोहर
अभी वक्त़ है, हम अभी चेत जाएँ।
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
नहीं काम हिंसा से चलता है भाई
सदा अंत इसका रहा दुःखदाई
महावीर, गाँधी ने अनुभव किया, फिर
अहिंसा की सीधी डगर थी बताई
रहे शुद्ध-मन, शुद्ध–तन, शुद्ध–चिंतन
अहिंसा के पथ की यही है कसौटी
दुखद अन्त हिंसा का होता हमेशा
सुखद फिर भी होती अहिंसा की रोटी
नई इस सदी में, सघन त्रासदी में
नई रोशनी के दिये फिर जलाएँ।
चलो फिर अहिंसा के बिरवे उगाएँ।
***
-डॉ॰ जगदीश व्योम
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21.6.05

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